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लोक तंत्र के धुरी में आखिर कबतक पीसते रहेंगे हमलोक ?

आत्ममंथन
आत्ममंथन
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लोक तंत्र के धुरी में आखिर कबतक पीसते रहेंगे हमलोक
जनतंत्र के ईश से मिले, क्या यूँ ही सहते रहेंगे प्रकोप
चीख भी निशब्द हुए फिर भी बिलखते है अंतरआत्मा
जन दर्द पर करे क्यूँ परवाह मजे में है तंत्र के परमात्मा
प्यास बुझने के एवज़ में प्यास और ही बढता गया
रौशनी के आस लिए अँधेरे में शदियों कटता गया
उन्हीके सोंच ने दीमक बनकर लोकतंत्र को कुरेंदते रहे
जुबानी तेज़ाब हम लोगो के जख्म पर छिड़कतें रहे
उनके जश्न में न जाने कब पैसठ गणतंत्र यूँ ही बीत गए
उपेक्षा में वाक़ये आजादी के इतने वरस यूँ ही बीत गए
उद्गोषाणा में दिखे कभी गरीबी तो कभी भ्रष्टाचार
लोक के उम्मीद को जगाकर खुदको किया तैयार
ज्यो ही मौका मिला सबकुछ गए डकार
मतलबी, मौकापरस्ती में कौन करे परोपकार
अन्ना की तोपी से कभी बाज़ार सजा
आम आदमी के नाम पर सबने ठगा
हे लोकतंत्र के भाग्य विधाता अब तो करो होश
न चाहिए कट्टर सोंच, न ही चाहिए युवा जोश
कब तक तोपी हम पहनकर नेताजी का गुणगान करेंगे
अबकी लोकतंत्र के शुभ मुर्हत पर हम इसका सज्ञान धरेंगे
जोश और होश से आओ चले मतदान करेंगे
आओ चले मतदान करेंगे …।

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