आत्ममंथन
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क्या यह वही शहर हैं, जिसे छोड़ गए थे हम ?
ये खन्दर, वे वीरान सी सड़के
अरे, ये हो क्या गया ?
ना मुस्करती कलियाँ, ना इठलाती नदिया,
शुनशान हैं बाग़, खामोश हैं गलियां !!
ये वही लोग हैं जिनके बुजुगों ने शहादत दिए थे
ना, ना, कहीं और तो, नहीं हम आ गए!
गैरो को तो छोड़ो ये तो अपने है जो लूट रहे हैं,
यह कैसी हैवानियत है, जो चारो तरफ छा गए !!
ना कोई शर्म ना कोई धर्म
ये कैसी हवस हैं जो दम तोड़ रहा है!
जिसके लिए मानवता का हो रहा हैं हनन
उफ़ ये रूह ! जो मरोर रहा हैं!!
कैसे उजारे इस चमन को,
जिसको हमने वरसो सवारे हैं !
हे ईस्वर, इनको दे सदबुधि,
ये कोई गैर नहीं अपने हमारे है!!
जय हिन्द ….
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