आत्ममंथन
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कीचड़ से कमल खिले या पंजा और हो मजबूत
जंहा कल थे, जंहा आज हूँ वंही कल भी रहूँगा
दूषित पानी हलको कि प्यास बुझायेगा,
वही दूषित हवा मेरी सांसो को ठामे रखेगी
अँधेरे से अब डरता नहीं क्यूँ कि जीना सीख लिया
अब रोशनी की चाह में कई रात गुजरते अखियों में दिख लिया
यूँ गद्ढे गिनते हुए सड़के ओझल होते जायंगे
नियमता के नाम पर गिलयों में अनियमता पाएंगे
मंहगाई, भ्रष्टाचार से लड़ते नाजाने कितने दम तोड़ जायंगे
अपने हित को साधने फिर से कोई अधूरी क्रांति बीच में छोड़ जायेंगे
फिर भी, एक युग पुरुष कि तालाश में विस्वास हैं अटूट
दल-दल से उठाकर जो पंजा के बदले वाजु को करंगे मजबूत
६० बर्ष के सपने अपने जो करने आएंगे साकार
हम तो चाहते हैं एक ऐसी सरकार, हँ एक ऐसी सरकार……
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